अब इच्छा नहीं होती
किसी से मिलने की
कहीं जाने की भी
किसी रिश्तेदार, दोस्त
अथवा जानने वाले के घर।
पड़ा रहता हूं घर पर यूं ही
आंखें मंूदे
और उस पर भी तकिए से ढांके मुंह
ताकि बच सकूं
दिन के उजाले
लोगों के तीखे सवालों से
और काबिलियत से अपनी खुद की।
कि जवाब नहीं सूझता
जब लोग पूछ देते हैं खींसते हुए
कहो भाई ! क्या हो रहा इन दिनों
कहां पर हो,
सुना था कुछ बड़ी पढ़ाई करने गए थे बाहर।
लोन वोन भी लिया था लाखों का
पापा तो रिटायर्ड हो गए
चलो अच्छा हुआ बच्चों को बना दिया
तब आत्मा और जिस्म भड़भड़ा कर
छुड़ाना चाहते हैं एक दूसरे से पिंड।
खोजता हूं ऐसा बिल जहां छुपा जा सके
समूचाध् आधा अधूरा या कैसा भी
क्योंकि तब चित्कार उठते हैं
अम्मा -बाबू जी के सपने
जो दबे पड़े हैं लाखों रूपए के लोन से
बेटे की काबिलियत, उसके सूखते जिस्म से
कि छल लिया ऊंची इमारतों के अंदर बैठे पत्थर इंसानों ने
जो लाखों में एडमीशन देकर
दिलाते हैं दो हजार की नौकरी
जिससे नहीं चुकता लाखों का कर्ज
पूरा महीना रोटी के साथ सब्जी भी नहीं मिलती
कि तब और दम घुटता है मेरा
जब देखता हूं अम्मा बाबू जी की आंखों में
सपनों का दम घुटते हुए।
---/प्रदीप